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भारत में हर 65,000 लोगों पर एक नेत्र चिकित्सक: All India Institute of Medical Sciences दिल्ली के सर्वे ने खोली आँखें

भारत में हर 65,000 लोगों पर एक नेत्र चिकित्सक: All India Institute of Medical Sciences दिल्ली के सर्वे ने खोली आँखें

भारत की दृष्टि-सेवा व्यवस्था में हाल ही में एक सर्वेक्षण ने भयावह तस्वीर पेश की है — ऐसा दृश्य जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। All India Institute of Medical Sciences (AIIMS), दिल्ली द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण ने यह इंगित किया है कि देश में औसतन एक नेत्र चिकित्सक प्रति लगभग 65,000 लोगों के अनुपात में उपलब्ध है। 

यह कोई मामूली संख्या नहीं है — बल्कि यह संकेत है कि दृष्टि से जुड़ी सेवाओं, नेत्र रोग विशेषज्ञों और समर्थक मानव संसाधन की कमी कितनी गहरी है। आइए इस पूरे विषय को विस्तार से देखें — जहाँ आंकड़ों ने कहानी बयां की है, और जहाँ हमें तत्काल कार्रवाई की जरूरत है।

सर्वेक्षण का दायरा और मुख्य निष्कर्ष

AIIMS-दिल्ली के Dr Rajendra Prasad Centre for Ophthalmic Sciences के प्रोफ़ेसर Praveen Vashist और उनकी टीम द्वारा ऐसा सर्वेक्षण संचालित किया गया, जिसमें देश भर में सेकंडरी एवं तृतीयक नेत्र देखभाल संस्थानों के मानव संसाधन (HR) एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर की स्थिति को आंका गया।  

इस अध्ययन में करीब 8,790 नेत्र देखभाल संस्थानों को पहचाना गया था और इनमें से 7,901 संस्थानों ने सर्वे में भाग लिया (प्रतिक्रिया-दर लगभग 89.9%)। 

अध्ययन में पाया गया कि देश में कुल 20,944 नेत्र चिकित्सक (ophthalmologists) कार्यरत हैं।  

इसके मुकाबले, प्राथमिक नेत्र देखभाल-प्रदाताओं (optometrists) की संख्या 17,849 के लगभग पाई गई।  

परिणामस्वरूप, नेत्र चिकित्सक-से-जनसंख्या अनुपात लगभग 1:65,221 निकलकर आया। 

इस अनुपात को मिलाकर कहा गया कि यह बराबर होगा करीब 15 नेत्र चिकित्सक प्रति एक-मिलियन (1,000,000) लोगों के। 

क्षेत्रीय असमानताएँ और प्रकृति की खामियाँ

सर्वेक्षण ने यह उजागर किया कि यह अनुपात पूरे देश में समान नहीं है। दक्षिण व पश्चिम भारत की कुछ राज्यों में स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है, जबकि उत्तर, पूर्व और उत्तर-पूर्वी राज्यों में कमी बहुत अधिक है। 

उदाहरण के लिए, Puducherry में प्रति मिलियन नेत्र चिकित्सक की संख्या 127 तक पाई गई, जबकि Ladakh में मात्र 2 ही चिकित्सक प्रति मिलियन थे।  

संस्थानों की स्वामित्व-स्थिति भी चिंताजनक है: लगभग 70.6 % नेत्र देखभाल संस्थाएं निजी क्षेत्र में हैं, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र में मात्र 15.6 % और एनजीओ-क्षेत्र में 13.8 % हैं।  

इन्फ्रास्ट्रक्चर-दृष्टि से भी बहुत खामियाँ हैं: केवल 40.5 % संस्थाओं में 24-घंटे नेत्र आपातकालीन सेवा उपलब्ध है। सिर्फ 5.7 % संस्थाओं में आँख-बैँक (eye bank)-सह–उपकरण मौजूद हैं। 

लक्ष्य-पथ (Vision 2020) से कितनी दूरी?

भारत ने पहले से ही ‘Vision 2020: Elimination of Avoidable Blindness’ तय किया था — जिसके अंतर्गत नेत्र चिकित्सक-पासपोर्ट की लक्ष्य-संख्या निर्धारित थी। सर्वे के अनुसार, नेत्र चिकित्सकों की कमी अभी भी बरकरार है।  

सर्वे में यह भी कहा गया कि देश को न्यूनतम 25,000 नेत्र चिकित्सक चाहिए थे, लेकिन अभी केवल ~20,944 ही उपलब्ध हैं — यानी परिपूर्ण लक्ष्य से बहुत पीछे।  

इसका मतलब यह है कि अगर इसी गति से काम चले तो ‘नेत्र अंधता’ को समय पर समाप्त करना कठिन होगा, विशेष रूप से ग्रामीण व वंचित इलाकों में।

Expensive private sector dominates India's eye care: AIIMS survey flags  deep gaps in public services | Delhi News - The Times of India

क्यों यह समस्या इतनी बड़ी है?

– भारत में 1.4 बिलियन से अधिक आबादी है; जब देखभाल-दान करने वाले विशेषज्ञ इन बड़ी संख्या के लिए पर्याप्त नहीं हैं, तो सेवाओं तक पहुँच में समय-लंबा हो जाता है।
– ग्रामीण-शहरी विभाजन: शहरी क्षेत्रों में बेहतर सेवाएँ उपलब्ध हैं, लेकिन ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में चिकित्सक-संख्या, सुविधाएँ व पहुँच बेहद कम है।
– आर्थिक-मॉडल का प्रभाव: क्योंकि अधिकांश संस्थाएं निजी हैं, उनकी प्राथमिकता मौद्रिक लाभ वाली सेवाओं (जैसे दृष्टि सुधारण ऑपरेशन) की ओर रही है, जबकि सामाजिक-जनहित सेवाएँ कम हुई हैं।  
– इंस्ट्रक्चर व सहायता स्टाफ की कमी: सिर्फ चिकित्सक होना पर्याप्त नहीं — ऑपरेशन थियेटर, आपातकालीन सुविधा, प्रशिक्षित सहायक स्टाफ और उपकरण सब मिलकर दृष्टि-सेवा की गुणवत्ता तय करते हैं। यहाँ कमी भी दिखी है।  

इसके परिणाम क्या हैं?

बड़ी संख्या में लोग समय पर नेत्र-देखभाल नहीं पा रहे हैं — जिससे दृष्टि-क्षति, दृष्टिहीनता और अंधेपन का जोखिम बढ़ जाता है।

बेहद पिछड़े जिलों में निगरानी व उपचार संभव नहीं हो पा रहा है — जिससे वंचित समूहों के बीच स्वास्थ्य असमानता और गहरी हो रही है।

यदि नेत्र सम्बन्धी सेवाएँ कमजोर रही, तो यह सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों को जन्म दे सकती हैं — जैसे कि कामकाजी क्षमता में कमी, शिक्षा बाधित होना, जीवन-गुणवत्ता का गिरना।

सरकार व नीति-निर्माताओं के लिए यह संकेत है कि दृष्टि-सेवा को प्राथमिक स्वास्थ्य-सेवा का अंग बनाना पड़ेगा — अन्यथा लक्ष्य से बहुत पीछे रह जाएंगे।

आगे क्या करना होगा – सुझाव और रास्ते

मानव संसाधन वृद्धि: नेत्र चिकित्सक-संख्या में वृद्धि के लिए मेडिकल शिक्षा-संस्थान, विशेष नेत्र-चिकित्सा पाठ्यक्रमों का विस्तार, व्यवसायीकरण व ग्रामीण स्थानों पर विशेषज्ञों की तैनाती।

सहायक स्टाफ व समर्थन-प्रणाली: ऑप्टोमेट्रिस्ट, नेत्र-तकनीशियन, ऑपरेशन थियेटर स्टाफ आदि की संख्या बढ़ानी होगी ताकि चिकित्सक अकेले काम न करें।

इन्फ्रास्ट्रक्चर-सुदृढ़ीकरण: ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में आपातकालीन नेत्र-सेवा, आंख-बैँक, विशेष सर्जरी सुविधाएँ विकसित करना।

स्वामित्व-संयोजन (Public-Private-NGO साझेदारी): क्योंकि निजी क्षेत्र का प्रभुत्व है, सार्वजनिक व एनजीओ-क्षेत्र में संतुलन बनाना जरूरी है — सरकार को सेवाओं को सही दिशा में प्रेरित करना होगा।

डेटा-आधारित योजना: सर्वे का लाभ उठाते हुए प्रत्येक राज्य, जिले के लिए मानव-साधन व सुविधा-मापदंड तैयार करना, निगरानी व मूल्यांकन करना।

ग्रामीण व वंचित क्षेत्रों पर फोकस: उत्तर-पूर्व, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में विशेष योजनाएं बनानी होंगी — जहाँ कमी सबसे अधिक पाई गई है।  

निष्कर्ष

देखो, सच ये है — हमारी आंखें बहुत कुछ बयां करती हैं। लेकिन अगर डॉक्टर, सुविधाएँ और सही सिस्टम नहीं मिलें तो वो आंखें वो सही-सही देख नहीं पाएँगी। इस सर्वे ने वो सच हमारे सामने रखा है जिसे हमें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए: भारत में अभी भी नेत्र देखभाल व्यवस्था मजबूत नहीं है, और इसके चलते आजादी-की तरह हमारी दृष्टि-स्वतंत्रता भी अधूरी है।

अगर हम समय रहते काम करें, तो इस कमी को पूरा किया जा सकता है — वरना आने वाले वर्षों में यह हमारे स्वास्थ्य-व्यवस्था की वो धब्बा बन सकता है जिसे मिटाना मुश्किल होगा।


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