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"युद्धविराम पर यू-टर्न: पहले 'Say No to War', अब सीज़फायर पर सवाल क्यों?"

"युद्धविराम पर यू-टर्न: पहले 'Say No to War', अब सीज़फायर पर सवाल क्यों?"

युद्धविराम पर यू-टर्न: पहले 'Say No to War', अब सीज़फायर पर सवाल क्यों?

हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के बीच जब भारत सरकार ने राजनयिक संतुलन कायम करते हुए युद्धविराम की पहल की, तो कई वही लोग जो कल तक सोशल मीडिया और मंचों पर 'Say No to War' और 'De-escalation' की बातें कर रहे थे, आज उसी युद्धविराम को 'सरकार की कमजोरी' बता रहे हैं।

कई विपक्षी नेताओं और विश्लेषकों का तर्क है कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय दबाव, खासकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हस्तक्षेप के कारण कदम पीछे खींचे हैं। कुछ आलोचक इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का झुकना बता रहे हैं और उनकी तुलना इंदिरा गांधी जैसी ‘निर्णायक’ नेता से कर रहे हैं।

हालांकि, सरकार का पक्ष साफ है कि युद्ध कोई समाधान नहीं है और कूटनीति व संयम ही दीर्घकालिक शांति की दिशा में रास्ता दिखाते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना उचित है?

राजनीति में मतभेद स्वाभाविक हैं, लेकिन जब बात देश की सुरक्षा और वैश्विक छवि की हो, तो दोहरे मापदंड देशहित को नुकसान पहुँचा सकते हैं।

जो लोग पहले युद्ध का विरोध कर रहे थे और शांति की बात कर रहे थे, वही अगर बाद में युद्धविराम का मज़ाक उड़ाते हैं या उसे 'झुकना' करार देते हैं, तो यह एक तरह की राजनीतिक सुविधा या अवसरवाद को दर्शाता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय दबाव और कूटनीतिक संतुलन बनाए रखना किसी भी सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से करना भी एक राजनीतिक रणनीति हो सकती है—कभी उनकी दृढ़ता को चुनौती देने के लिए, तो कभी उनकी तुलना "लोहा महिला" से करने के लिए।


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