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यूरोप में एथेनॉल पर सख्त नियामकीय नज़र: क्यों यह हमारी समझ से परे नहीं है?

यूरोप में एथेनॉल पर सख्त नियामकीय नज़र: क्यों यह हमारी समझ से परे नहीं है?

1. पृष्ठभूमि: एथेनॉल क्या है और क्यों इस्तेमाल होता रहा है

भाई, चलो सीधी बात करते हैं — एथेनॉल, यानी वो वही अल्कोहल जो शराब में भी होता है (हाँ, वो वाला) लेकिन उद्योग-उपयोग में, सैनिटाइज़र में, बायोफ्यूल में, सफाई में यानी बहुत जगह इस्तेमाल हुआ है।
विशेष रूप से European Chemicals Agency (ECHA) और European Commission जैसे नियामक संस्थाओं ने इसे लंबे समय से यह मानकर देखा कि यह सुरक्षित है — बशर्ते कि उपयोग-शर्तें नियंत्रित हों।

लेकिन समय बदल रहा है। वैज्ञानिक शोध, उपयोग पैटर्न, निर्यात-आयात की चुनौतियाँ, और पर्यावरण-स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ — इन सबने मिलकर यह सवाल उठाया है: क्या एथेनॉल वास्तव में उतना “सुरक्षित” है जितना माना गया था?

2. यूरोपीय संघ में क्या हो रहा है

अब बड़ी बात — यूरोपीय संघ ने एथेनॉल के इस्तेमाल पर सख्त समीक्षा शुरू कर दी है। उदाहरण के लिए:

ECHA की एक कार्य-समूह ने 10 अक्टूबर 2025 को इन्टरनल सुझाव दिया कि एथेनॉल को “कार्सिनोजेन (कैंसरकारक) और पुनरुत्पादन विषाक्त (reproductive toxicant)” श्रेणियों में शामिल किया जाना चाहिए। 

यदि ऐसा हुआ, तो बहुत सारे बायोसाइडल उत्पाद (सैनिटाइज़र, डिसइंफेक्टेंट्स) जिनमें एथेनॉल सक्रिय या सहायक घटक है, उन्हें या तो प्रतिबंधित करना पड़ेगा या विशेष अनुमति से चलना होगा।

इसके अलावा, एथेनॉल के आयात-निर्यात, बायोफ्यूल में इसके इस्तेमाल, कृषि-फीडस्टॉक की स्थितियाँ भी चर्चा में हैं — उदाहरण के तौर पर, पाकिस्तान से एथेनॉल आयात पर यूरोपीय आयोग ने कड़ा रुख अपनाया है क्योंकि यूरोपीय उत्पादकों को “अनुचित प्रतिस्पर्धा” का नुकसान हुआ है। 

इनके बीच, उद्योग ने कहा है कि “यह निर्णय जल्दी लिया जा रहा है, वैज्ञानिक आधार पर्याप्त नहीं है” — क्योंकि मौजूदा डेटा मुख्यतः शराब सेवन (oral consumption) से लिया गया है, न कि त्वचा/सैनिटाइज़र जैसे उपयोग से। 

3. क्यों यह कदम उठाया जा रहा है?

देखिए, तीन-चार प्रमुख कारण हैं — थोड़े पुराने और थोड़े नए:

स्वास्थ्य-चिंताएँ

शोध बताते हैं कि शराब (जिसमें एथेनॉल मौजूद है) के सेवन से कैंसर, पुनरुत्पादन क्षमता पर असर आदि जोखिम बढ़ सकते हैं। यूरोपीय नियामकों का कहना है कि हालांकि सैनिटाइज़र-उपयोग और शराब सेवन में अंतर है, लेकिन “एथेनॉल exposure” के नए तरीके (स्किन, इनहेलेशन) पर डेटा कम है।

इसलिए “सावधानी-प्रबंधन (precaution-management)” का सिद्धांत काम कर रहा है — अगर डेटा कम है, तो जोखिम को न्यूनतम करना बेहतर।

पर्यावरण-और-उद्योग दबाव

एथेनॉल बायोफ्यूल में इस्तेमाल होता रहा है — जो ‘फॉसिल ईंधन’ पर निर्भरता कम करने का एक तरीका माना गया है। लेकिन यूरोपीय संघ में यह भी सवाल उठा है कि फीडस्टॉक कौन-सा है (खाद्य फसलों से बन रहा है या पुराने खेतों से) और क्या यह वास्तव में “सस्टेनेबल” है?

इसके अलावा, आयात-निर्यात और उत्पादन लागत, प्रतिस्पर्धा, उन किसानों व उद्योगों की चिंता भी है जिनकी जीविका एथेनॉल उत्पादन पर निर्भर है।

नियामक ढाँचा में बदलाव

यूरोपीय संघ का नियम-वाली परिवेश तेजी से बदल रहा है — जैसे FuelEU Maritime Regulation, RefuelEU Aviation Regulation और बायोफ्यूल को लेकर नए निर्देश। एथेनॉल उद्योग खुद इन बदलावों के बीच फंसी हुई है।

4. इसके उद्योग-वितरण व भू-राजनीतिक मायने

अरे, ये कोई छोटी बात नहीं है — इसका असर चेन-रीऐक्शन जैसा है:

यूरोपीय उत्पादक कह रहे हैं: “अगर एथेनॉल को नए जोखिम श्रेणियों में डाल दें, तो हमारी लागत बढ़ेगी, हमें नए विकल्प खोजने पड़ेंगे, उत्पादन बंद हो सकता है।” उदाहरण-के तौर पर INEOS ने स्कॉटलैंड की ग्रैंगमाउथ इकाई बंद करने की झुकाव दिखाया है क्योंकि यूरोप में मांग या प्रतिस्पर्धा कठिन हो गई है। 

आयात-निर्यात पर असर: पाकिस्तान से यूरोप को एथेनॉल आयात पर प्रतिबंध या टैरिफ बढ़ने की स्थिति है। इससे पाकिस्तान जैसे देशों का व्यवसाय प्रभावित होगा। 

भारत पर भी यह असर कर सकता है: भारत वैश्विक एथेनॉल उपयोग, उत्पादन व बायोफ्यूल मिशन में आगे है। यदि यूरोप जैसे बड़े बाजार बदलाव करें, तो वैश्विक आपूर्ति-शृंखला, कीमतें, फीडस्टॉक स्रोत सब प्रभावित होंगे।

उपभोक्ता-स्तर पर: हाथ से सैनिटाइज़र हो, इंधन हो या कृषि-उत्पादन — नियम-परिवर्तन का असर नीचे तक जाएगा।

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5. भारत के लिए क्या संकेत हैं?

भाई, यहाँ स्थितियाँ थोड़ी जटिल हैं — लेकिन स्पष्ट संकेत हैं:

भारत में तो एथेनॉल ब्लेंडिंग (ई20, ई10) जैसी नीतियाँ चल रही हैं। यदि यूरोप में एथेनॉल की इमेज बदलती है, तो वैश्विक बाजार-भावों पर असर होगा, फीडस्टॉक की कीमत बढ़ सकती है, निर्यात-मॉडल प्रभावित हो सकते हैं।

भारत-उद्योगों को यह ध्यान देना होगा कि उत्पादन, निर्यात, नियामक मानक (सस्टेनेबिलिटी, प्रमाण-पत्र) मजबूत हों — क्योंकि यूरोपीय नियामक बनने जा रहे हैं।

यदि यूरोप से एथेनॉल के विकल्प खोजने की दिशा में बढ़ता है, तो भारत-निर्माता-उद्योग को जल्दी-से-जल्दी ‘वैकल्पिक फीडस्टॉक’, ‘उच्च गुणवत्ता प्रमाण-पत्र’ व ‘निर्यात-लक्षित उत्पादन’ पर काम करना होगा।

उपभोक्ता सुरक्षा, स्वास्थ्य-मानदंड भी महत्त्वपूर्ण हो जाएंगे — सैनिटाइज़र, डिसइंफेक्टेंट्स में इस्तेमाल होने वाला एथेनॉल किस ग्रेड का है, उस पर निगाह रखनी पड़ेगी।

6. चुनौतियाँ और विवाद

ठीक है, बात इतनी सरल नहीं — कुछ विवाद भी हैं:

उद्योग का कहना है कि जो डेटा दिखाया जा रहा है (एथेनॉल का कैंसर-या-पुनरुत्पादन संबंधी खतरा) वह मुख्यतः शराब सेवन (oral intake) से लिया गया है, न कि सैनिटाइज़र या बायोफ्यूल उपयोग से। 

फिर, यदि एथेनॉल को “कार्सिनोजेन” श्रेणी में डाल दिया गया, तो उसके अनेक उपयोग बंद हो सकते हैं — जिससे सैनिटाइज़र, डिसइंफेक्टेंट, बायोफ्यूल सप्लाई में “शॉक” हो सकता है।

नियामक कार्रवाई और वास्तविक-उपयोग के बीच “डोज़”, “प्रवेश मार्ग” (ingestion/inhalation/dermal) आदि का अंतर है — यानी सिर्फ “है आत्मा में जोखिम” कहना पर्याप्त नहीं।

किसानों-उत्पादकों को लागत-वृद्धि का डर है, क्योंकि नए नियम-प्रमाण मानने में लागत आ सकती है।

7. आगे का रास्ता: क्या हो सकता है?

हम आगे क्या देख सकते हैं — एक नजर में:

नवंबर 2025 में ECHA के बायोसाइडल उत्पाद समिति की बैठक निर्धारित है जहाँ एथेनॉल की पुनर्वर्गीकरण (classification) पर राय आ सकती है। 

यदि एथेनॉल को CMR (Carcinogenic / Mutagenic / Reproductive toxic) श्रेणी में रखा गया, तो बायोसाइडल उत्पादों में उसका उपयोग सीमित हो जाएगा, या अतिरिक्त नियंत्रणों के तहत आएगा।

उद्योग को वैकल्पिक कच्चे माल, नई तकनीक, प्रमाणित उत्पादन, सप्लाई-चेन को मजबूत करना पड़ेगा।

भारत सहित अन्य देशों को यह देखना होगा कि वे निर्माण व निर्यात-नीति किस तरह बदलें — प्रतिस्पर्धात्मक बने रहने के लिए।

उपभोक्ताओं व उपयोग-सेक्टर (हाथ सेनिटाइज़र, डिसइंफेक्टेंट्स, बायोफ्यूल) को जागरूक होना पड़ेगा — “उपयोग किस ग्रेड का सामग्री है?”, “मानक क्यों बदलने हैं?” तरह के सवाल पूछने होंगे।

8. निष्कर्ष

तो भाई, बात यह है — यह कोई मामूली बदलाव नहीं है। जब यूरोपीय नियामक इतनी बड़े स्तर पर एथेनॉल जैसे प्राथमिक रसायन पर सवाल उठाते हैं, तो यह सिर्फ एक रसायन-मुद्दा नहीं रह जाता — यह स्वास्थ्य, पर्यावरण, उद्योग, निर्यात-आयात, कृषि-उत्पादन सबको छूता है।


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