धर्मेंद्र की सख्ती: ‘बेताब’ के डबिंग रि-डू कराए, सनी देओल को मात्र एक ही थप्पड़ पड़ा — चेहरे पर आज भी दो उँगलियों का निशान
- byAman Prajapat
- 18 October, 2025

बॉलीवुड का पुराना जमाना था — जब सेट, स्क्रीन और स्टूडियो में सिर्फ ग्लैमर नहीं बल्कि ना कहे जाने वाले कठिन संघर्ष, पिता-प्रेरणा, और बेबाक सख्ती भी मौजूद थी। ऐसे ही एक किस्से में सामने आया है कि जब सनी देओल ने 1983 में अपनी पहली लीड फिल्म बेताब में कदम रखा, तब उनके पिता, सुपरस्टार धर्मेंद्र ने ऐसे फैसले लिए जिनसे आज भी उस दौर की “पुरानी बॉलीवुड मर्यादा” झलकती है।
शुरुआत और सख्ती
सनी देओल के लिए ‘बेताब’ केवल एक फिल्म नहीं थी — यह एक उम्मीद-सपने की गुज़रिश थी, एक नए अभिनेता के लिए अपनी जगह बनाने की शुरुआत थी।
लेकिन पिता धर्मेंद्र का कहना था कि सिर्फ कैमरा सामने होना काफी नहीं था — डबिंग जैसी “छोटी” मगर अहम प्रक्रिया में भी आत्मा, ऊर्जा और “धड़कन” होनी चाहिए। उन्होंने बताया कि ट्रायल शो के दौरान उन्होंने देखा कि डबिंग पूरी हो चुकी थी, मगर उन्हें संतुष्टि नहीं थी; उन्होंने सनी को बुलाया और पूरे डबिंग को फिर से कराने का आदेश दिया।
इस सख्ती के पीछे उनका मानना था — “जब आप कैमरे के सामने एक्ट कर रहे हो, तब इमोशन आता है; लेकिन डबिंग वह हिस्सा है जहाँ स्वर-स्वर में जान नहीं हो तो असर नहीं होता।” उन्होंने यह भी कहा कि जब उन्होंने खुद पहली बार डबिंग की थी, तो उन्हें बहुत झिझक हुई थी, क्योंकि “क्यों मैं एक्ट करके बाद में डबिंग कर रहा हूँ?”— वह एहसास था।
थप्पड़-घटना: एक यादगार मोमेंट
कहानी में एक और दृश्य है — वह दृश्य जहाँ पिता-पुत्र के बीच सख्त मगर यादगार संवाद बन गया। धर्मेंद्र ने स्वीकारा है कि उन्होंने अपने बेटे सनी को वहीं अपने जीवन में एक ही बार थप्पड़ मारा।
सनी ने याद किया, “उस क्षण जब पापा ने मारा, चेहरे पर दो उँगलियों का निशान आज भी मेरी याददाश्त में है।”
इस थप्पड़-घटना का कारण भी एक तरह से वो “जिम्मेदारी-सिखाई” वाला क्षण था — छोटे बेटे ने गलती की थी, धर्मेंद्र ने कहा कि उन्होंने एक बार ही ऐसा किया, लेकिन फिर भी अपने बेटे पर नजर रखते रहे।
उस दौर की चुनौतियाँ और आज की सोच
यह किस्सा हमें याद दिलाता है कि पुराने बॉलीवुड में डबिंग-शूट के बाद देर रात तक पोस्ट-प्रोडक्शन, पिता का इंतज़ार, और बेटे की थकावट भी आम थी। धर्मेंद्र बताते हैं कि वे अक्सर 11 बजे–12 बजे तक सनी के साथ रहते थे डबिंग के दौरान, कभी दिखने नहीं जाते थे लेकिन “मैं जा रहा हूँ” कहकर छुप जाते थे और देखते थे कि सनी कितनी मेहनत कर रहा है।
आज हम जब बॉलीवुड के “वन-टेक्स”, “आर-ए-डब्ल्यू फुटेज”, “डबिंग कम-हाइब्रिड” आदि शब्द सुनते हैं, तो शायद उस जमाने की कड़ी मेहनत-सिखावन की याद कम होती है। उस दौर में पिता-बेटे का ऐसा रिश्ता था जिसमें स्नेह के साथ रवायत-अनुशासन भी था।

पिता-पुत्र की डबल एक्टिंग मिथक नहीं
धर्मेंद्र-सनी का नाम अक्सर एक साथ आता है — फिल्मों में, मीडिया में, फैंस की नज़रों में। लेकिन इस किस्से से यह बात भी स्पष्ट होती है कि सुपरस्टार का बेटा होने का मतलब सिर्फ गिफ्टेड होना नहीं, बल्कि दिन-रात की तैयारी, सुधार, और पिता-की उम्मीदें भी होती थीं।
सनी को यह महसूस हुआ कि पिता सिर्फ रोल नहीं दे रहे थे, बल्कि उस रोल के लिए मानक, स्वच्छता, आत्म-विश्वास भी मांग रहे थे। और जब डबिंग में ठीक से ‘जान’ नहीं थी, तो पिता ने कहा — “फिर से करो।”
आज-कल की पीढ़ी और बदलाव
आज का बॉलीवुड कहीं अधिक खुला है, तकनीक विकसित है, अभिनय के नए तरीके हैं, डबिंग-पोस्ट-प्रोडक्शन बहुत बदल गया है। लेकिन इस कहानी से हमें यह भी सिखने को मिलता है कि किसी भी शुरुआत में आसान रास्ता नहीं होता। पिता-सख्ती, थकावट, रियाज — ये सब उस समय का हिस्सा थे।
अगर आज कोई युवा अभिनेता “मैं तैयार हूँ” कहता है, तो उसे यह याद रखना चाहिए कि किसी ने पहले “फिर से करो” कहा था — और वह फिर से कर रहा था, डबिंग-बॉक्स में, देर रात तक।
निष्कर्ष
इस यादगार किस्से में सिर्फ एक थप्पड़ या सिर्फ एक डबिंग-री-टेक नहीं है — यह पीढ़ी-बदलाव, परंपरा-निर्माण, पिता-प्रेरणा और बेटे-मेहनत का संगीत है।
धर्मेंद्र ने सख्ती दिखाई, लेकिन उसी सख्ती ने सनी देओल को उस मुकाम तक पहुँचने में मदद की जहां वे आज हैं। और सनी ने अपनी थकावट, अपने दो उँगलियों के निशान, अपने डबिंग-घंटों को भूल नहीं किया।
तो अगली बार जब आप “बेताब” का ट्रैक सुनें या सनी देओल की फिल्म देखें, याद रखिए — स्क्रीन के पीछे एक पिता-बेटे की कहानी थी, वो पुरानी-ठोस, वो सीख-भरी, वो आज भी हवा में गूंजती हुई।
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सनी देओल की 'जाट' ने...
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