फिल्म-निर्माण की दुनिया अक्सर चमक-धमक, स्टारडम और ग्लैमर से जुड़ी दिखती है — लेकिन जब हम अंदर झाँकते हैं, तो अक्सर वो सच्चाई सामने आती है जिसे कम ही लोग बताते हैं। इसी सच्चाई का आइना हैं Anurag Kashyap के हालिया डराओं वाले बयान। अपनी मशहूर फिल्म Gangs of Wasseypur (जिसने भारतीय अपराध-ड्रामा की दिशा बदल दी थी) के निर्देशक ने कहा है कि उन्हें उस फिल्म से सख़्त नफ़रत महसूस होती है — और यह बयान सिर्फ फिल्म शीर्षक का नहीं है, बल्कि उस पूरे अनुभव, उस पहलू और उस इंडस्ट्री-सिस्टम की आलोचना है जिसमें उन्होंने काम किया।
उन्होंने विस्तार से बताया है कि हिंदी फिल्म-उद्योग में जो रुझान बन चुके हैं — बड़े बजट की बड़ी-बड़ी फिल्में, मुनाफे की बुहतरी, पहले “सेलिंग” की सोच, नए प्रयोग नहीं बल्कि दोहराव — उन सब ने उनके लिए फिल्म-बनाने का आनंद खत्म कर दिया है। उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा कि:
“Right from the beginning, before the film starts, it becomes about how to sell it. So, the joy of filmmaking is sucked out.” यह बात दर्शाती है कि जब फिल्मों का बनने का उद्देश्य रचनात्मक नहीं बल्कि सिर्फ व्यापार-मोड में बदल जाता है — तो निर्देशक भी खुद का उत्साह खोने लगता है।
कश्यप ने यह भी माना है कि धीरे-धीरे उन्हें वह लगने लगा है कि वो उस फिल्म-उद्योग का हिस्सा नहीं हैं जिसकी आलोचना वे करते हैं — जहाँ संवाद, कहानी, नया प्रयोग पहले नहीं रह गए। उन्होंने कहा है कि फिल्म-निर्माण में अब सिर्फ मुनाफा, बड़े स्टार्स, दोहरायी गई कहानियाँ, रीमेक्स आदि चल रहे हैं। इस कारण उन्होंने खुल कर कहा है कि उन्हें अपनी उस फिल्म से (जो उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण रही) नफ़रत तक महसूस होती है — इस तरह की सख़्ती शायद इसलिए कि उन्होंने उस अनुभव को पूरी तरह से जीया है।
उनका कहना है:
“I am so disappointed and disgusted by my own industry. I am disgusted by the mindset.” और ऐसा कहा जाना शायद इसलिए कि वे अब बदलाव की दिशा में सोच रहे हैं — मुंबई छोड़ने, दक्षिण-भारतीय सिनेमा की ओर झुकने की इच्छा जताई है। यह सब दर्शाता है कि व्यक्त-निर्देशक के रूप में उनकी यात्रा सिर्फ सफल फिल्में बनाने तक सीमित नहीं रही; यह उनकी अंदरूनी लड़ाई, इंडस्ट्री-ग्लैमर के तले दबती वास्तविकताएँ, और फिल्म-निर्माण के मूल आनंद का खो जाना भी रही है।
क्यों ‘नफ़रत’ जैसा शब्द उन्होंने उपयोग किया होगा? – क्योंकि जिस फिल्म ने उन्हें अमिट पहचान दी — वही फिल्म उन्हें याद दिलाती होगी उस व्यवस्था को जिसमें उन्होंने काम किया। – उन्होंने महसूस किया होगा कि उस फिल्म की सफलता के पीछे सिर्फ कथा-रचना नहीं बल्कि अपना संघर्ष, इंडस्ट्री-कम्प्रोमाइज, निर्माता-प्रोड्यूसर दबाव, मुनाफे की लालसा आदि शामिल थे। – ‘नफ़रत’ शब्द उनके लिए एक तरह का काफ़ी स्तर का विरोध-भाव हो सकता है — जब तुम किसी काम से शुरुआत करते हो उत्साह-हासिल करने, लेकिन अंत में उस काम के पीछे-बाहर की असलियत से घुटन महसूस हो। – यह भी हो सकता है कि उन्होंने उस फिल्म के निर्माता-परिस्थितियों, उत्पादन-दबाव, रिलीज-दबाव आदि को पीछे से देखा हो, और अब जब वह रचनात्मक रूप से आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें उसमें असंगति दिखती हो।
उनके खुलासों से हमें क्या सिखने को मिलता है?
फिल्म-निर्माण सिर्फ कैमरा, सेट, कलाकार नहीं है — उसमें इंफ्रास्ट्रक्चर, निर्माता-दबाव, रिलीज रणनीति, मार्केटिंग, बॉक्स-ऑफिस चिंता सब शामिल हैं।
जब क्रिएटिविटी पीछे हट जाती है और सफाई-मुनाफा आगे आ जाता है, तो निर्देशक या कलाकार को वह आनंद नहीं मिलता जिसकी उन्होंने शुरुआत में कल्पना की थी।
प्रसिद्धि-सफलता के बावजूद, व्यक्ति के भीतर असंतोष हो सकता है — क्योंकि पहचान के साथ अक्सर व्यवस्थित दबाव, कॉम्प्रोमाइज़ और कॉर्पोरेट फैसले जुड़े होते हैं।
यदि आप सच्चे कलाकार-निर्माता हैं, तो आप बजट-स्टार-फॉर्मूला से परे जाकर कुछ नया करना चाहेंगे — और जब वह संभव न हो, तो दूर हटना भी विकल्प बन जाता है।
निष्कर्ष: अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक ने जिस तरह से अपनी फिल्म-यात्रा में ‘उत्साह से घुटन’ तक का सफर देखा है, वह हमें याद दिलाता है कि इंडस्ट्री की चमक-धमक के पीछे सच में क्या होता है। ‘वसेपुर’ जैसे फिल्म ने उन्हें किरदार, पहचान, प्रशंसा दी — लेकिन उसी फिल्म के माध्यम से उन्होंने उस व्यवस्था को भी देखा, समझा और अनुभव किया जिसमें उन्हें अब नफ़रत महसूस होती है। यह सिर्फ व्यक्तिगत बयान नहीं, एक संकेत है इंडस्ट्री को कि अगर सिनेमा सिर्फ व्यापार बन जाए, तो आनंद खो जाता है, और कलाकार खामोश हो जाते हैं।
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